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Friday, September 9, 2011

हिन्दी.हिन्दू.हिन्दुस्तान: चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम...

हिन्दी.हिन्दू.हिन्दुस्तान: चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम...: ( रामदास सोनी) at hindugatha.blogspot.com घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनों पक्षों के सैनिक खाना-सोना त...


चित्तौडग़ढ़ में हुआ था विश्व का सबसे पहला कत्ले-आम - PART -2
( रामदास सोनी) at hindugatha.blogspot.com


घमासान युद्ध आरंभ हो चुका था। दो रात और एक दिन तो युद्ध के कारण दोनों पक्षों केसैनिक खाना-सोना तक भूल गए थे। किले के नागरिकों से राजपूतों को भरपूर सहायता मिल रही थी। वे अपने घरों से ज्वलनशील सामग्री ला लाकर मोर्चों पर पहुँचा रहे थे। शस्त्रों का अनवरत निर्माण कर रहे थे। प्राचीरों पर पत्थरों का ढेर लगा था, यदा कदा स्वयं भी शाही सेना पर पथराव के द्वारा प्रत्यक्ष युद्ध में भाग ले रहे । राजपूताने के इतिहास में यह प्रथम अवसर था जब युद्ध विधा से अपरिचत नागरिकों, स्त्रियों और बालकों तक ने मातृभूमि की रक्षा के लिये युद्ध में भाग लिया था। चारों ओर रण मद छाया था।

अपनी कमज़ोर स्थिति के बावज़ूद उनका उत्साह भंग नहीं हो रहा था। नागरिकों का मनोबल देख सैनिकों व सरदारों का हौसला भी दुगुना हुआ जाता था। यह देख रनिवासों की राजपूतानियाँ भी घूँघट उलट युद्ध में आ कूदीं। उनका मनोबल देख कर किसी भी सरदार कोउन्हें रोकने का साहस नहीं हुआ। जयमल्ल द्वारा उन्हें महलों में रह कर ही युद्ध का परिणाम देखने की बात सुनते ही पत्ता चूंडावत की माँ सज्जन बाई सोनगरी बिफर उठी। सिंहनी की गर्जना के साथ उन्होंने पूछाग् क्या यह हमारी मातृभूमि नहीं है? क्या इसकी रक्षा की जिम्मेदारी हमारी नहीं है? क्या इससे पूर्व इसी किले में जवाहर बाईके नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों ने युद्ध नहीं लडा.? यदि यह सच है तो हमें युद्ध में भाग लेने से कैसे रोका जा सकता है? इसके बाद किसीने उन्हें रोकने का साहस नहीं किया। युद्ध में अकबर चकिया नामक हाथी पर सवार हो कर न केवल सभी मोर्चों को सँभालता था, अपितु सैनिकों के साथ खड़ा हो बंदूकें भी चलाने लगता था। लाखोटा दरवाजे के पास मोर्चे के निरीक्षण के समय किले से आई गोली उसके कान के पास से निकल गई। अकबर ने फुर्ती से दीवार की आड़ ले अपनी जान बचाई। फिर उसने बन्दूक लेकर तरकश की तरफ गोली चलाईग, जिससे किले के बन्दूकचियों का सरदार इस्माईल खाँ मारा गया. कालपी से लाए एक हजार बक्सरिया मुसलमानों की सेना इस्माईल खाँ के नेतृत्व में राजपूतों की ओर से लड़ रही थी। इस सेना के कुशल बन्दूकचियों ने शाही सेना के सैंकड़ों सैनिकों को मारा था।

घमासान युद्ध के दौरान अकबर को एक तीरकश से हजारमेखी सिलह पहने एक सरदार दिखाई दिया। उसे महत्वपूर्ण सरदार जान अकबर ने अपनी संग्राम नामक बंदूक से गोली चला दी। गोली जयमल्ल के घुटने में लगी। पैर टूट जाने पर उसने सभी सरदारों को एकत्र कर मंत्रणा की। किले की दीवारें कई जगह से टूट-फूट जाने के अतिरिक्त भारी संख्या में सैनिक मारे जा चुके थे। उधर कड़ी घेराबंदी के कारण किले में खाद्य सामग्री का भी अभाव हो चला था। ऐसे में रनिवासों में शेष रही राजपूत स्त्रियों, कन्याओं और बालकों को जौहर की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्म करने के बाद,शेष राजपूतों को केसरिया बाना धारण कर शत्रुओं पर टूट पडऩे का अंतिम निर्णय ले लिया गया।

25 फरवरी 1568 को अर्धरात्रि में हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने भीमलत कुण्ड में स्नान कर सौभाग्य चिन्ह धारण किये। हर हर महा देव के अनवरत जयघोषों और ढोल-नगाड़ों की ध्वनियों के बीच समिधेश्वर महादेव के दर्शन कर वे जौहर स्थल पर एकत्रित हो गईं। इनका नेतृत्व जयमल्ल राठौड़ और पत्ता चूण्डावत की पत्नियाँ कर रही थीं। समिधेश्वर महादेव और भीमलत के बीच विशाल मैदान में लकडिय़ों का विशाल ढेर एकत्रित था। ब्रह्म मुहूर्त में वेद मंत्र ध्वनियों के साथ अग्नि प्रज्वलित की गई । केसरिया वस्त्र पहने राजपूत रक्तिम नेत्रों से अपनी पत्नियों, बालक पुत्रों तथा पुत्रियों को अन्तिम विदा दे रहे थे। विकराल अग्नि शिखाएं आकाश स्पर्श की स्पर्धा में लपलपाने लगीं। मातृभूमि को अन्तिम प्रणाम कर पत्ता की बड़ी रानी जीवाबाई सोलंकी ने पति की ओर देखा, आँखों से ही पति को अन्तिम प्रणाम कर, हर हर महादेव के गगनभेदी जयघोषों के बीच वह अग्निकुण्ड में कूद गई। इसके साथ ही पत्ता की अन्य रानियाँ मदालसा बाई कछवाही, भगवती बाई चहुवान, पद्मावती झाली,रतन बाई राठौड, बालेसा बाई चहुवान, आसाबाई बागड़ेची अपने दो पुत्रों तथा पाँच पुत्रियों के साथ लपलपाती ज्वाला में समा गई। कुछ वर्ष पूर्व गुजरात के बादशाह बहादुर शाह के चित्तौड़ आक्रमण में अपने पति को न्यौछावर करने वाली पत्ता की माँ सज्जन बाई सोनगरी ने पुत्र को केसरिया तिलक लगा कर जौहर किया। विजयी मुगलों सेअपना सतीत्व और बच्चों को मुसलमान बनाने से बचाने के लिये हज़ारों राजपूत वीरांगनाओं ने पत्ता, साहिब खान, ईसरदास की हवेलियों के पास धधक रही चिताओं में अग्निस्नान कर दूसरे लोक में प्रस्थान किया। अंधकार में धधकती ज्वालाएं मीलों दूर तक दिखाई दे रहीथी। आशंकित अकबर को आम्बेर के राजा भगवान दास ने बताया कि अपने स्त्री-बच्चों को अग्नि की भेंट कर महाकाल बने राजपूतों का अन्तिम ओर प्रचण्ड आक्रमण होने वाला है। केसरिया बाना धारण करने के बाद राजपूत स्वयं महाकाल बन जाता है। सुन कर अकबर ने समय नष्ट नहीं किया और फौरन सेना की व्यूह रचना सुदृढ़ कर,राजपूती आक्रमण की प्रतीक्षा करने लगा।

भोर की प्रथम किरण के साथ किले के द्वार खुल गए। हर हर महादेव के जयघोषों के साथ रण बांकुरे राजपूत मुगल सेना पर टूट पड़े। अकबर की गोली से घुटना टूट जाने के कारण जयमल्ल को घोड़े पर बैठने में असमर्थ देख उसके भाई कल्ला राठौड़ ने अपने कन्धें पर बिठा लिया। दोनों भाई तलवार चलाते हुए शाही सेना में घुस गए। महाकाल बने दोनों भाई दो घड़ी घण्टे तक युद्ध करने के बाद हनुमान पोल और भैरव पोल के बीच मारे गए। उधर डोडिया सांडा भी गम्भीरी नदी के पश्चिम में घमासान युद्ध करते हुए मारा गया। राजपूतों के प्रचण्ड आक्रमण का सामना करने के लिये अकबर ने पचास प्रशिक्षित हाथियों की सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ा कर आगे बढ़ाया। इनके पीछे तीन सौ हाथियों की एक और रक्षा पंक्ति सूंडों में दुधारे खांडे पकड़ आगे बढ़ी। इनमें मधुकर, जांगिया, सबदलिया,कदीरा आदि कई विख्यात और कई युद्धों में आजमाये गजराज भी शामिल थे।

अकबर स्वयं मधुकर पर सवार होकर युद्ध संचालन कर रहा था। इनके मुकाबले राजपूत सरदार घोड़ों पर शेष सब पैदल थे। लेकिन शौर्य साधनों का मोहताज नहीं होता। एक राजपूत ने उछल कर वार किया तो अजमत खां के हाथी की सूंड कट कर दूर जा गिरी। घबराया हाथी अपनी ही सेना को कुचलता हुआ भागा। भागते हाथी से गिर कर अजमत खां ने भी दम तोड़ दिया। इसी प्रकार सबदलिया हाथी ने भी सूंड कट जाने पर अपनी ही सेना के पचासों सैनिकों को कुचल डाला। राजपूतों के कड़े प्रतिरोध के बाद भी शाही सेना हाथियों और बंदूकों के बल पर धीरे-धीरे किले में प्रवेश करती जा रही थी। यह देख राजपूतों की ओर से लड़ रहे बक्सरिया मुसलमानों की बन्दूक सेना ने भाग निकलने में ही कुशल समझी। वे अपनी स्त्रियों और बच्चों को कैदियों की तरह घेर कर शाही सेना के बीच से निकले। उन्हें अपना सैनिक समझ शाही सेना ने रोक-टोक नहीं की। सूरजपोल पर रावत साईं दास बहादुरी के साथ लड़ते हुए मारा गया। उसकी मदद को पहुँचे राजराणा जैता सज्जावत और राजराणा सुल्तान आसावत भी वहीं काम आ गए। समिधेश्वर महादेव मन्दिर के पास और रामपोल पर पत्ता चूंडावत के नेतृत्व में युद्ध हो रहा था। रणबांकुरा पत्ता चपलता के पूर्वक घोड़ा दौड़ाता हुआ हाथियों की सूंडे काट रहा था। रक्त के धारे बहाते ये शुण्ड विहीन गजराज अपनी ही सेना को कुचलते हुए भाग रहे थे।

एक गजराज की सूंड में पकड़े खांडे से घोड़े का पैर कट जाने पर पत्ता जमीन पर कूद पड़ा और पैदल ही मारकाट करता हुआ गम्भीर रूप से घायल हो गया। महावत उसे महत्वपूर्ण सरदार समझ जिन्दा गिरफ्तार करने के लिये हाथी की सूंड में लपेट अकबर की ओर चला। पत्ता की वीरता से प्रभावित बादशाह द्वारा प्राण बचाने के प्रयास करने से पूर्व ही उसने दम तोड़ दिया। किले के चप्पे-चप्पे पर हुए घमासान युद्ध में रणबांकुरे राजपूत तिल-तिल कट मरे। एक ओर जौहर की चिताएं अब भी धधक रही थीं, दूसरी ओर रामपोल से समिधेश्वर तक की जमीन लाशों से ढँक गई थी। किले पर शाही झंडा फहराने के बाद अकबर के चेहरे पर विजय का उल्लास अभी ठीक से फैल भी न सका था कि एक अप्रत्याशित दृश्य ने स्तंभित कर दिया, वह समझ नहीं पा रहा था कि यह दृश्य वास्तव में हकीकत है या फिर कोई सपना देख रहा है। ऐसा दृश्य किसी युद्ध में देखना तो दूर सुना तक न था। युद्ध में आम नागरिक सेना की सहायता तो करते हैं किन्तु स्वयं मैदान में नहीं उतरते। लेकिन यहाँ तो अघट ही घट रहा था। किले की घेराबंदी से पूर्व आस-पास के गाँवों से किले में आ गए ग्रामीणों ने किले के निवासियों के साथ मिल कर शाही सेना पर हल्ला बोल दिया था। इनके पास न शस्त्र थे और न ही लडऩे का कौशल। जिसके हाथ जो आया उसी से सैनिकों को मारने लगा। ब्राह्मणों ने वेदपाठ छोड़ लाठियाँ उठा लीं।

वैश्य-वणिकों ने तौलने के बांटों से ही कइयों के सर फोड़ डाले। भील, लोहार, धोबी,रंगरेज, जुलाहे, मोची, राज मिस्त्री कोई भी तो पीछे न रहा। लाठी, डंडा, गोफन, पत्थर आदि ही उनके अस्त्र थे। यह विश्व का अनूठा युद्ध था। जहाँ प्रशिक्षित अस्त्र-शस्त्र से सज्जित सेना से शस्त्रविहीन देहाती भिड़ रहे थे।

मुश्किल से हासिल विजय में खलल पड़ता देख तैमूर के वंशज अकबर की आँखों में खून उतर आया। मातृभूमि के प्रति प्रेम से उत्पन्न इस छोटे से प्रतिरोध को बिना खून-खराबे के शान्त करना आसान था किन्तु अकबर ने नृशंस निर्णय लिया। शाही सेना पर हमले के अपराध में उसने कत्ल-ए-आम का आदेश दे दिया। विजय के नशे में चूर मुगल निहत्थे नागरिकों पर टूट पड़े। चारों ओर कोहराम मच गया। खूंखार सैनिकों के सामने जो पड़ा, नृशंसता पूर्वक कत्ल कर दिया गया। स्त्रियों और बच्चों तक को नहीं बख्शा गया। चित्तौड़ की आवासीय गलियाँ लाशों से भर गईं। मध्यान्ह से तीसरे प्रहर तक चला कत्ल-ए-आम अन्तिम व्यक्ति को भी तलवार की भेंट चढाने के बाद ही बन्द हुआ। विश्व के इस सबसे बड़े हत्याकाण्ड में चालीस हज़ार से अधिक नागरिक स्त्री,पुरूष, बालक मारे गए किन्तु इस युद्ध में मारे गए राजपूतों और जौहर की स्त्रियों को भी शामिल करने पर यह संख्या सत्तर हज़ार से अधिक हो जाती है। जबकि 12 मार्च1739 को नादिरशाह द्वारा दिल्ली में किये कत्ल-ए-आम् में लगभग तीस हज़ार लोग दरिन्दगी की भेंट चढ़े थे। यह महान कहे जाने वाले अकबर की नृसंसता का घृणित प्रदर्शन ही था कि अपनी सफलता का आकलन करने के लिये उसने मारे गए लोंगों के यज्ञोपवीतों को तुलवाया, उनका वजन 7411निकला।

उन दिनों मेवाड़ी मन चार सेर का होता था। इससे है हत्या की भयावहता का अनुमान हो जाता है। कार्थाज़ वालों ने भी केना के युद्ध में मारे गए रोमनों की अगूठियाँ तुलवा कर अपनी सफलता का परिणाम आंका था। चित्तौड़ दुर्ग के निवासियों ने ही नहीं वहाँ के भवनों, मन्दिरों, महलों ने भी अकबरी प्रकोप झेला था। अनेकों भवनों, मन्दिरों, महलों को नष्ट कर ख्वाजा अब्दुल मजीद आसिफ खाँ को किले का शासन सौंप कर अकबर आगरा लौटा था। जयमल और पत्ता की वीरता से प्रभावित होकर उसने आगरा के किले में इनकी पत्थर की मूर्तियाँ लगवा कर इनके शौर्य का सम्मान अवश्य किया था।

( रामदास सोनी) at hindugatha.blogspot.com

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