आधुनिक युग के एक महान कर्मयोगी - पं. दीनदयाल उपाध्याय
राजनीति ने राष्ट्र-जीवन में कुछ ऐसे दोष उत्पन्न कर दिये हैं जो हमारे लिये अभिशाप बन गये हैं। जातिवाद, सिध्दान्तहीनता, पदलोलुपता, वैमनस्यता और अनुशासनहीनता सर्वत्र फैलती जा रही है। इन दोषों से छुटकारा पाने का एकमेव उपाय है कि राजनीति की बागडोर ऐसे व्यक्तियों के हाथ में हो जिनके सबल पग न तो मोह में फंस सकें और न कठिनाईयों में डगमगा सकें वरन् दृढ़ता से एक ऐसा मार्ग प्रशस्त करते चलें। जो जनता के लिये आदर्श और प्ररेणा प्रस्तुत कर सकें। पं. दीनदयाल उपाध्याय उन आदर्श पुरूषों में से एक थे जिन्होंने शुक्र, बृहस्पति और चाणक्य की भांति आधुनिक राजनीति को शुचि और शुद्धता के धरातल पर खड़ा करने की प्रेरणा दी।
दल के संगठन के नाते दीनदयाल जी जहाँ मृदुभाषी तथा सैध्दान्तिक चर्चा में खुले मन के थे, वहीं सिध्दान्त का आग्रह रखने के बारे में अत्यन्त कठोर भी थे। वे कहा करते थे कि राजनीतिक दल में अनुशासन ऊपर से लादा नहीं जा सकता। आदर्शवाद के साथ सुसंगत आचरण भी दल के अनुशासन का ही एक भाग है। जनसंघ में आदर्श के अनुरूप आचरण का बड़ा महत्व होता था। दीनदयाल जी अपने समय में सिध्दान्त का कैसा आग्रह रखते थे और अनुशासन किस प्रकार बनाये रखते थे, इनके दो मुख्य उदाहरण है 1953 में राजस्थान में जनसंघ ने बिना क्षतिपूर्ति (मुआवजा) दिये जमीदारी समाप्त करने का प्रस्ताव किया था। राजस्थान में उन दिनों जमींदारों और जागीरदारों का राजनीति पर प्रभुत्व था। अत: उनके अनुकूल रहने वाले 6 विधायकों ने जनसंघ की इस भूमिका से विसंगत आचरण किया तो दीनदयाल जी ने उन्हें दल से निकाल दिया। जनसंघ में तब मात्र 2 विधायक बचे, पहले थे भैरोंसिंह शेखावत व दूसरे थे जगतसिंह झाला (बडी सादडी)। दूसरा उदाहरण है – जनसंघ के उन दिनों के अध्यक्ष पंडित मौलिचन्द्र शर्मा को उन्होंने दल छोड़ने के लिए विवश किया। पंडित मौलिकचन्द्र शर्मा के बारे में यह संदेह था कि वे नेहरूजी से मिलकर कुछ समझौता कर रहे हैं। अन्तत: वे कांग्रेस में चले ही गये। कार्यकर्ताओं ने उनके विरोध में प्रस्ताव कर उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए विवश किया। सिद्धान्त तथा आचरण में विसंगति दीनदयाल जी ने कभी सहन नहीं की।
1952 में कानपुर जनसंघ के प्रथम अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय इस नवीन दल के महामंत्री निर्वाचित हुए। अपनी वैचारिक क्षमता को उन्होंने प्रथम अधिवेशन में ही प्रकट किया। कुल 15 प्रस्ताव इस अधिवेशन में पारित हुए, जिनमें से सात अकेले दीनदयाल उपाध्याय ने प्रस्तत किए। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवनिर्वाचित महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय से पूर्व परिचित नहीं थे लेकिन कानपुर अधिवेशन में उन्होंने उपाध्याय की कार्यक्षमता, संगठन कौशल एवं गहराई से विचार करने के स्वभाव को अनुभव किया। उसी आधार पर उन्होंने यह प्रसिद्ध वाक्य कहा- ”यदि मुझे दो दीनदयाल और मिल जाएं तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।”
इस नूतन राजनीतिक दल की भूमिका के विषयों मे उन्होंने कहा – ”भारतीय जनसंघ एक अलग प्रकार का दल है। किसी भी प्रकार सत्ता में आने की लालसा वाले लोगों का यह झुंड नहीं है … जनसंघ एक दल नही वरन् आन्दोलन है। यह राष्ट्रीय अभिलाषा का स्वयंस्फूर्त निर्झर है। यह राष्ट्र के नियत लक्ष्य को आग्रहपूर्वक प्राप्त करने की आकांक्षा है।”
दीनदयाल उपाध्याय के प्रथम कानपुर, अधिवेशन से ही जनसंघ की कमान संभाल ली थी तथा वैचारिक दृष्टि से जनसंघ के चरित्र को स्पष्ट करने वाला ‘सांस्कृतिक पुनर्रूस्थान’ प्रस्ताव उन्होंने रखा था। ”जनसंघ का मत है कि भारत तथा अन्य देशों के इतिहास का विचार करने से यह सिध्द होता है कि केवल भौगोलिक एकता, राष्ट्रीयता के लिए पर्याप्त नहीं है। एक देश के निवासी जन एक राष्ट्र तभी बनते हैं जब वे एक संस्कृति द्वारा एकरूप कर दिये गए हों। हिन्दू समाज को चाहिए कि विदेशी धर्मावलम्बियों को स्नेहपूर्वक आत्मसात कर ले। केवल इस प्रकार साम्प्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण तथा दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है। उपाध्याय ने मुस्लिम व ईसाइयों के लिए ‘हिन्दू समाज’ के ही अपने उन ‘अंगो’ शब्द का प्रयोग किया तथा उन्हें भारतीय जनजीवन का अंग स्वीकार किया है। परोक्षत: यह स्वीकार किया है कि मुस्लिम समाज को पृथक करने में हिन्दू समाज का कोई अपना भी दोष है जिसे अब ठीक करना चाहिए। अर्थात् उन्हें स्नेह व आत्मीयता प्रदान करनी चाहिए। तभी मुसलमानों की साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान होगा। मुसलमानों अथवा ईसाइयों की अलग संस्कृति और उसके संरक्षण के विचार के तथा अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विचार को वे राष्ट्र के लिए विभेदकारी तथा साम्प्रदायिक विचार मानते थे।
1964 में राजस्थान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ग्रीष्मकालीन संघ शिक्षा वर्ग उदयपुर में हो रहा था। अपने बौध्दिकवर्ग में उन्होंने कहा ”स्वयंसेवक को राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए जैसे कि मैं हूं। यह वाक्य पहेली सरीखा था। अत: रात्रि में प्रश्नोत्तर के सत्र में उनसे सवाल पूछा गया, आप एक राजनीतिक दल के अखिल भारतीय महामंत्री है, आप राजनीति से अलिप्त कैसे है? दीनदयालजी ने जवाब दिया कि, ”मैं राजनीति के लिए राजनीति में नहीं हूं वरन् मैं राजनीति में संस्कृति का राजदूत हूँ। राजनीति का संस्कृति से शून्य हो जाना अच्छा नहीं हैं।”
अपने वरिष्ठ अधिकारियों एवं मित्रों के दबाब में उन्होंने जौनपुर लोकसभा चुनाव हेतु संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी होना अनमने मन से स्वीकार किया। हालांकि उपाध्याय हारे थे, लेकिन जौनपुर निर्वाचन क्षेत्र के लोग आज भी उन्हें तथा उस चुनाव को याद करते हैं। उपाध्याय ने इस चुनाव को अपने सिध्दान्तवादी व्यवहार की प्रयोगशाला के रूप में बदल दिया था। पारंम्परिक रूप से जौनपुर निर्वाचन क्षेत्र, राजपूत व ब्राह्मण जातिवाद के आधार पर लड़े जाने वाले चुनावों की रंगभूमि रहा है। कांग्रेस ने राजपूतवाद का पूरी तरह से सहारा लिया। राजपूतवाद का प्रतिवाद वहां ब्राह्मणवाद से ही किया जा सकता था। स्थानीय लोगों ने जब इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहा, दीनदयाल अपने समर्थकों पर बिगड़े तथा कहा – ”इस प्रकार चुनाव जीतने की कोशिश की गई, तो मैं चुनावों से हट जाऊँगा। विपक्ष के विषय में उन्होंने कहा, विजयी व्यक्ति को सबसे पहली बधाई मेरी ओर से मिलनी चाहिए। मैं लिख देता हूं, तुम किसी से भेज दो’ मित्रों के आश्चर्य करने पर उन्होंने कहा, ‘यह तो हमारी परम्परा है कि विजयी प्रत्याशी को पहली बधाई उसका प्रतिद्वन्द्वी ही दे। आखिर हमारे राजनीति में आने का कया उपयोग? यदि हम भी लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा का निर्माण नहीं कर पाए।”
जनसंघ एवं संघ के प्रति जवाहरलाल नेहरूजी का व्यवहार कटुतापूर्ण था लेकिन दीनदयालजी ने अनेक अवसरों पर उनके प्रति जो व्यवहार किया वह भी उनके सांस्कृतिक राजदूतत्व को ही रेखांकित करता है। एक अवसर पर उपाध्यायजी ने कहा – ”हमारी पं. नेहरू के साथ चाहे जितनी मतभिन्नता हो और चाहे जितना हम उनकी नीति के विरोध में आन्दोलन चला रहे हों- मैं अपने प्रधानमंत्री को, जिस समय वे विदेशयात्रा पर गए हुए हैं, विश्वास दिलाता हूं कि भारतीय जनसंघ की सद्भावनाएं एवं पूर्ण समर्थन इस समय उनके साथ है।”
11 फरवरी 1968 की रात्रि में वे रेल गाड़ी द्वारा लखनऊ से पटना जा रहे थे। दूसरे दिन सुबह मुगल सराय स्टेशन पर कपड़े में लिपटा हुआ एक शव देखा गया। पहचानने पर पता चला कि यह पार्थिव शरीर पंडितजी का था। चारों ओर शोक की लहर छा गई, इस महान व्यक्ति की हत्या किसने की होगी? आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है। मृत्योपरांत उनकी इस महानता को समर्थकों और विरोधियों दोनों ने समान रूप से स्वीकार किया; उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की तथा मार्मिक श्रध्दांजलि अर्पित की। केन्द्रीय गृहमंत्री श्री यशवंत राव चव्हाण ने उन्हें ‘महान भारतीय’ के रूप में श्रद्धांजलि दी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर कार्यवाही श्री बाला साहब देवरस ने उन्हें ‘आदर्श स्वयंसेवक’ के रूप में डॉ. हेडगेवार समान श्रेष्ठ बताया तथा प्रजा समाजवादी दल के नेता श्री नाथ पै ने कहा कि वह गांधी, तिलक और नेताजी बोस की परम्परा की ‘एक कड़ी’ थे। साम्यवादी नेता श्री हीरेन मुखर्जी ने श्री उपाध्यक्ष को ‘अजात शत्रु’ की संज्ञा दी तथा आचार्य कृपलानी ने उन्हें ‘देव सम्पदा’ की उपमा दी। वास्तव में पं. दीनदयाल उपाध्याय ‘महर्षि दधीचि’ की भांति राष्ट्र मंदिर के निर्माण में अपने शरीर की एक-एक अस्थि समर्पित कर देने वाले आधुनिक युग के एक महान कर्मयोगी थे।
-विजय प्रकाश विप्लवी
दल के संगठन के नाते दीनदयाल जी जहाँ मृदुभाषी तथा सैध्दान्तिक चर्चा में खुले मन के थे, वहीं सिध्दान्त का आग्रह रखने के बारे में अत्यन्त कठोर भी थे। वे कहा करते थे कि राजनीतिक दल में अनुशासन ऊपर से लादा नहीं जा सकता। आदर्शवाद के साथ सुसंगत आचरण भी दल के अनुशासन का ही एक भाग है। जनसंघ में आदर्श के अनुरूप आचरण का बड़ा महत्व होता था। दीनदयाल जी अपने समय में सिध्दान्त का कैसा आग्रह रखते थे और अनुशासन किस प्रकार बनाये रखते थे, इनके दो मुख्य उदाहरण है 1953 में राजस्थान में जनसंघ ने बिना क्षतिपूर्ति (मुआवजा) दिये जमीदारी समाप्त करने का प्रस्ताव किया था। राजस्थान में उन दिनों जमींदारों और जागीरदारों का राजनीति पर प्रभुत्व था। अत: उनके अनुकूल रहने वाले 6 विधायकों ने जनसंघ की इस भूमिका से विसंगत आचरण किया तो दीनदयाल जी ने उन्हें दल से निकाल दिया। जनसंघ में तब मात्र 2 विधायक बचे, पहले थे भैरोंसिंह शेखावत व दूसरे थे जगतसिंह झाला (बडी सादडी)। दूसरा उदाहरण है – जनसंघ के उन दिनों के अध्यक्ष पंडित मौलिचन्द्र शर्मा को उन्होंने दल छोड़ने के लिए विवश किया। पंडित मौलिकचन्द्र शर्मा के बारे में यह संदेह था कि वे नेहरूजी से मिलकर कुछ समझौता कर रहे हैं। अन्तत: वे कांग्रेस में चले ही गये। कार्यकर्ताओं ने उनके विरोध में प्रस्ताव कर उन्हें अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए विवश किया। सिद्धान्त तथा आचरण में विसंगति दीनदयाल जी ने कभी सहन नहीं की।
1952 में कानपुर जनसंघ के प्रथम अधिवेशन में दीनदयाल उपाध्याय इस नवीन दल के महामंत्री निर्वाचित हुए। अपनी वैचारिक क्षमता को उन्होंने प्रथम अधिवेशन में ही प्रकट किया। कुल 15 प्रस्ताव इस अधिवेशन में पारित हुए, जिनमें से सात अकेले दीनदयाल उपाध्याय ने प्रस्तत किए। डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी नवनिर्वाचित महामंत्री दीनदयाल उपाध्याय से पूर्व परिचित नहीं थे लेकिन कानपुर अधिवेशन में उन्होंने उपाध्याय की कार्यक्षमता, संगठन कौशल एवं गहराई से विचार करने के स्वभाव को अनुभव किया। उसी आधार पर उन्होंने यह प्रसिद्ध वाक्य कहा- ”यदि मुझे दो दीनदयाल और मिल जाएं तो मैं भारतीय राजनीति का नक्शा बदल दूँ।”
इस नूतन राजनीतिक दल की भूमिका के विषयों मे उन्होंने कहा – ”भारतीय जनसंघ एक अलग प्रकार का दल है। किसी भी प्रकार सत्ता में आने की लालसा वाले लोगों का यह झुंड नहीं है … जनसंघ एक दल नही वरन् आन्दोलन है। यह राष्ट्रीय अभिलाषा का स्वयंस्फूर्त निर्झर है। यह राष्ट्र के नियत लक्ष्य को आग्रहपूर्वक प्राप्त करने की आकांक्षा है।”
दीनदयाल उपाध्याय के प्रथम कानपुर, अधिवेशन से ही जनसंघ की कमान संभाल ली थी तथा वैचारिक दृष्टि से जनसंघ के चरित्र को स्पष्ट करने वाला ‘सांस्कृतिक पुनर्रूस्थान’ प्रस्ताव उन्होंने रखा था। ”जनसंघ का मत है कि भारत तथा अन्य देशों के इतिहास का विचार करने से यह सिध्द होता है कि केवल भौगोलिक एकता, राष्ट्रीयता के लिए पर्याप्त नहीं है। एक देश के निवासी जन एक राष्ट्र तभी बनते हैं जब वे एक संस्कृति द्वारा एकरूप कर दिये गए हों। हिन्दू समाज को चाहिए कि विदेशी धर्मावलम्बियों को स्नेहपूर्वक आत्मसात कर ले। केवल इस प्रकार साम्प्रदायिकता का अंत हो सकता है और राष्ट्र का एकीकरण तथा दृढ़ता निष्पन्न हो सकती है। उपाध्याय ने मुस्लिम व ईसाइयों के लिए ‘हिन्दू समाज’ के ही अपने उन ‘अंगो’ शब्द का प्रयोग किया तथा उन्हें भारतीय जनजीवन का अंग स्वीकार किया है। परोक्षत: यह स्वीकार किया है कि मुस्लिम समाज को पृथक करने में हिन्दू समाज का कोई अपना भी दोष है जिसे अब ठीक करना चाहिए। अर्थात् उन्हें स्नेह व आत्मीयता प्रदान करनी चाहिए। तभी मुसलमानों की साम्प्रदायिकता की समस्या का समाधान होगा। मुसलमानों अथवा ईसाइयों की अलग संस्कृति और उसके संरक्षण के विचार के तथा अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक विचार को वे राष्ट्र के लिए विभेदकारी तथा साम्प्रदायिक विचार मानते थे।
1964 में राजस्थान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ग्रीष्मकालीन संघ शिक्षा वर्ग उदयपुर में हो रहा था। अपने बौध्दिकवर्ग में उन्होंने कहा ”स्वयंसेवक को राजनीति से अलिप्त रहना चाहिए जैसे कि मैं हूं। यह वाक्य पहेली सरीखा था। अत: रात्रि में प्रश्नोत्तर के सत्र में उनसे सवाल पूछा गया, आप एक राजनीतिक दल के अखिल भारतीय महामंत्री है, आप राजनीति से अलिप्त कैसे है? दीनदयालजी ने जवाब दिया कि, ”मैं राजनीति के लिए राजनीति में नहीं हूं वरन् मैं राजनीति में संस्कृति का राजदूत हूँ। राजनीति का संस्कृति से शून्य हो जाना अच्छा नहीं हैं।”
अपने वरिष्ठ अधिकारियों एवं मित्रों के दबाब में उन्होंने जौनपुर लोकसभा चुनाव हेतु संयुक्त विपक्ष का प्रत्याशी होना अनमने मन से स्वीकार किया। हालांकि उपाध्याय हारे थे, लेकिन जौनपुर निर्वाचन क्षेत्र के लोग आज भी उन्हें तथा उस चुनाव को याद करते हैं। उपाध्याय ने इस चुनाव को अपने सिध्दान्तवादी व्यवहार की प्रयोगशाला के रूप में बदल दिया था। पारंम्परिक रूप से जौनपुर निर्वाचन क्षेत्र, राजपूत व ब्राह्मण जातिवाद के आधार पर लड़े जाने वाले चुनावों की रंगभूमि रहा है। कांग्रेस ने राजपूतवाद का पूरी तरह से सहारा लिया। राजपूतवाद का प्रतिवाद वहां ब्राह्मणवाद से ही किया जा सकता था। स्थानीय लोगों ने जब इस प्रकार का प्रयत्न करना चाहा, दीनदयाल अपने समर्थकों पर बिगड़े तथा कहा – ”इस प्रकार चुनाव जीतने की कोशिश की गई, तो मैं चुनावों से हट जाऊँगा। विपक्ष के विषय में उन्होंने कहा, विजयी व्यक्ति को सबसे पहली बधाई मेरी ओर से मिलनी चाहिए। मैं लिख देता हूं, तुम किसी से भेज दो’ मित्रों के आश्चर्य करने पर उन्होंने कहा, ‘यह तो हमारी परम्परा है कि विजयी प्रत्याशी को पहली बधाई उसका प्रतिद्वन्द्वी ही दे। आखिर हमारे राजनीति में आने का कया उपयोग? यदि हम भी लोकतंत्र की स्वस्थ परम्परा का निर्माण नहीं कर पाए।”
जनसंघ एवं संघ के प्रति जवाहरलाल नेहरूजी का व्यवहार कटुतापूर्ण था लेकिन दीनदयालजी ने अनेक अवसरों पर उनके प्रति जो व्यवहार किया वह भी उनके सांस्कृतिक राजदूतत्व को ही रेखांकित करता है। एक अवसर पर उपाध्यायजी ने कहा – ”हमारी पं. नेहरू के साथ चाहे जितनी मतभिन्नता हो और चाहे जितना हम उनकी नीति के विरोध में आन्दोलन चला रहे हों- मैं अपने प्रधानमंत्री को, जिस समय वे विदेशयात्रा पर गए हुए हैं, विश्वास दिलाता हूं कि भारतीय जनसंघ की सद्भावनाएं एवं पूर्ण समर्थन इस समय उनके साथ है।”
11 फरवरी 1968 की रात्रि में वे रेल गाड़ी द्वारा लखनऊ से पटना जा रहे थे। दूसरे दिन सुबह मुगल सराय स्टेशन पर कपड़े में लिपटा हुआ एक शव देखा गया। पहचानने पर पता चला कि यह पार्थिव शरीर पंडितजी का था। चारों ओर शोक की लहर छा गई, इस महान व्यक्ति की हत्या किसने की होगी? आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित है। मृत्योपरांत उनकी इस महानता को समर्थकों और विरोधियों दोनों ने समान रूप से स्वीकार किया; उनकी भूरि भूरि प्रशंसा की तथा मार्मिक श्रध्दांजलि अर्पित की। केन्द्रीय गृहमंत्री श्री यशवंत राव चव्हाण ने उन्हें ‘महान भारतीय’ के रूप में श्रद्धांजलि दी, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सर कार्यवाही श्री बाला साहब देवरस ने उन्हें ‘आदर्श स्वयंसेवक’ के रूप में डॉ. हेडगेवार समान श्रेष्ठ बताया तथा प्रजा समाजवादी दल के नेता श्री नाथ पै ने कहा कि वह गांधी, तिलक और नेताजी बोस की परम्परा की ‘एक कड़ी’ थे। साम्यवादी नेता श्री हीरेन मुखर्जी ने श्री उपाध्यक्ष को ‘अजात शत्रु’ की संज्ञा दी तथा आचार्य कृपलानी ने उन्हें ‘देव सम्पदा’ की उपमा दी। वास्तव में पं. दीनदयाल उपाध्याय ‘महर्षि दधीचि’ की भांति राष्ट्र मंदिर के निर्माण में अपने शरीर की एक-एक अस्थि समर्पित कर देने वाले आधुनिक युग के एक महान कर्मयोगी थे।
-विजय प्रकाश विप्लवी
No comments:
Post a Comment